
शिक्षा में सुधार या दिखावा? अमेठी के आदेश पर उठे कई सवाल, जनता में गूंज रही आवाज़…….
गंगेश पाठक
अमेठी : (NNI 24) वित्तविहीन मान्यता प्राप्त स्कूलों में किताबों की बिक्री को लेकर जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी द्वारा 2 अप्रैल 2025 को जारी आदेश सोशल मीडिया पर खूब वायरल हो रहा है। आदेश में निजी प्रकाशकों की पुस्तकों को स्कूलों द्वारा जबरन थोपने पर चिंता जताई गई है और एनसीईआरटी/एससीईआरटी की किताबों को ही अपनाने का निर्देश दिया गया है। लेकिन इस आदेश की टाइमिंग और प्रभावशीलता को लेकर अब गंभीर सवाल उठने लगे हैं — जो न केवल शिक्षा विभाग की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े कर रहे हैं, बल्कि प्रशासन की सतर्कता पर भी उंगली उठा रहे हैं।
आम लोगों के बीच यह चर्चा तेज हो चुकी है कि जब अप्रैल तक अधिकतर अभिभावक किताबें खरीद चुके होते हैं, तब ऐसे आदेश जारी करना महज़ एक औपचारिकता नहीं तो और क्या है? अगर वाकई सुधार की मंशा थी, तो यह आदेश फरवरी माह में क्यों नहीं आया, जब पुस्तक खरीद की प्रक्रिया शुरू होती है?
आश्चर्यजनक बात यह है कि आदेश की प्रतिलिपि जिन अधिकारियों को भेजी गई — मुख्य विकास अधिकारी, खंड शिक्षा अधिकारी, मंडलीय सहायक निदेशक बेसिक, जिला विद्यालय निरीक्षक सहित अन्य — क्या उन्होंने कभी यह सवाल नहीं उठाया कि यह आदेश देरी से क्यों जारी किया गया?
जनता सवाल कर रही है कि जब आदेश जारी हुआ तो संबंधित अधिकारियों ने क्या इसे केवल फाइल में लगाकर शांत बैठ जाना ही पर्याप्त समझा? क्या अमेठी प्रशासन को यह नहीं दिखा कि निजी स्कूलों में फरवरी-मार्च में किताबों की खरीद हो चुकी है? क्या अधिकारियों को यह जानकारी नहीं कि किताबें कब खरीदी जाती हैं और आदेश कब आना चाहिए?
अब स्थिति यह है कि जिन बच्चों ने पहले ही निजी प्रकाशकों की किताबें खरीद ली हैं, क्या अब वे दो-दो किताबें पढ़ेंगे? एक ही कक्षा में आधे बच्चे प्राइवेट किताब से और आधे एनसीईआरटी से पढ़ेंगे क्या? इससे तो पढ़ाई की व्यवस्था पूरी तरह उलझ जाएगी।
क्या अब बेसिक शिक्षा अधिकारी स्कूलों को बाध्य करेंगे कि वे निजी प्रकाशकों की किताबें वापस करवा कर दोबारा एनसीईआरटी की किताबें दिलवाएं? क्या यह कदम संभव है? और अगर नहीं, तो यह आदेश केवल ‘प्रशासनिक कोरम’ बनकर ही क्यों नहीं रह जाएगा?
शिक्षा विभाग के इस आदेश ने लोगों में भ्रम और असमंजस की स्थिति पैदा कर दी है। शासन की मंशा पर सवाल नहीं, लेकिन क्रियान्वयन की दिशा में गंभीर खामियाँ उजागर हो रही हैं। सोशल मीडिया पर यह चर्चा अब आम हो चली है कि जब तक व्यवस्था से कोई लाभ मिलता है, तब तक वह ‘नीति-सम्मत’ मानी जाती है, और जब नुकसान हो, तो उसे ‘कोरम’ कहा जाता है।
जनता अब स्पष्ट जवाब चाहती है। क्या आदेश ज़मीन पर उतरेगा या सिर्फ दीवारों पर चिपककर रह जाएगा? यह सवाल अब हर माता-पिता, हर शिक्षक और हर छात्र के मन में गूंज रहा है। शासन को इस पर गंभीर आत्मचिंतन और सुधार की दिशा में जल्द कार्रवाई करनी चाहिए।

Cheif Editor
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